दनकौर

द्रोण नाट्य मंच: एक सदी के बाद पारसी थियेटर की मौत -मनोज त्यागी( नाट्य मंडली के अध्यक्ष)

स्थानीय कलाकारों में भारी रोष, जनता में भी नाराजगी -आलोक गोयल

दनकौर में द्रोण नाट्य  मंच पर विशेष रिपोर्ट

 राजेश बैरागी( स्वतंत्र पत्रकार व लेखक)

हालांकि यह सुनने में थोड़ा अजीब लग सकता है और इस नाट्य विधा से लगाव रखने वाले दुखी भी होंगे परंतु यह सच्चाई है कि श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर 101 वर्षों से दनकौर (गौतमबुद्धनगर,उत्तर प्रदेश) में आयोजित होने वाले प्रसिद्ध द्रोण मेले में इस बार पूरी एक शताब्दी तक विभिन्न ऐतिहासिक, धार्मिक और सामाजिक विषयों पर चले पारसी थियेटर के अंतर्गत कोई नाटक नहीं किया जाएगा। कस्बे के नागरिकों की भावनाओं के विपरीत पारसी थियेटर को स्थान न देने वाली मेला प्रबंधन समिति द्वारा हालांकि 12 दिवसीय मेले में तमाम तरह के मनोरंजन के कार्यक्रमों का आयोजन किया गया है।

संभवतः देश भर में अकेले दनकौर में पिछले सौ वर्षों से निरंतर चले आ रहे पारसी थियेटर का अंत हो गया है? ब्रिटिश शासनकाल में भारत आया पारसी थियेटर अंग्रेज अफसरों के मनोरंजन का एक बड़ा साधन था। इसमें सामने अभिनय करने वाले पात्र दोनों तरफ पर्दे के पीछे खड़े परम्पटर(अनुबोधक) द्वारा बोले गए संवादों को दोहराते हैं। इससे पात्रों द्वारा संवाद भूलने की समस्या पेश नहीं आती है। मुंबई में पृथ्वीराज कपूर के साथ अल्फ्रेड नाटक कंपनी में काम करने वाले सिकंद्राबाद कस्बे के मास्टर मंगतराम ने दनकौर में 1923 में पारसी थियेटर की न केवल नींव डाली बल्कि कई दशकों तक वे यहां पारसी थियेटर के माध्यम से अनेक धार्मिक और ऐतिहासिक कथाओं पर आधारित नाटक प्रस्तुत करते रहे। उनके स्वर्ग सिधारने के बाद भी कस्बे के लोगों ने पारसी थियेटर की लॏ जलाए रखी। स्थानीय लोगों के सहयोग से 1961 में यहां द्रोणाचार्य मंदिर परिसर में पारसी थियेटर का पक्का मंच बनाया गया।हर वर्ष यहां आयोजित होने वाले द्रोण मेले में रात्रि में पारसी थियेटर में नाटक प्रस्तुत किए जाते थे।इन नाटकों को देखने के लिए कस्बे के अलावा आसपास गांवों के हजारों लोग रात भर नाटक देखकर अपने घर लौटते थे। यह पारसी थियेटर का ही कमाल था कि द्रोण मेले के दौरान हर वर्ष यहां छः सात दिनों तक दिन रात कस्बा जागता था। श्री द्रोण मेला समिति के प्रबंधक रहे रमेश चोकड़ात, मनमोहन चौधरी और वेदप्रकाश अग्रवाल सहित नगर के सभी जाति धर्म के सम्मानित लोग  रात रात भर स्वयं बैठकर नाटक देखते थे और समूची व्यवस्था पर नजर रखते थे।

श्री द्रोण नाट्य मंडली के अध्यक्ष मनोज त्यागी बताते हैं कि उनके पास इससे भी अलग बहुत स्मृतियां मौजूद हैं कस्बे के ही व्यापारी व सभी जाति धर्म की प्रतिभाएं इस मंच पर अपनी प्रतिभाएं दिखाती थी व लड़के पारसी थियेटर के कलाकार होते थे वे पुरुष और महिला पात्रों की भूमिका पुरुष ही निभाते थे। नाट्य मंडली में प्रवेश की एक शर्त यह भी होती थी कि पहले एक दो वर्ष नये कलाकार को महिला पात्रों की भूमिका अदा करनी पड़ती थी। बाद में बाहर से महिला कलाकारों को बुलाया जाने लगा।

दनकौर में बची पारसी थियेटर की जड़ों पर प्रसिद्ध सांस्कृतिक पत्रिका ‘रंगकर्मी’ के 2001के अंक में विशेष आलेख भी छपा था। वर्ष 2002 में मैंने भी एक रात वहीं बिताकर पारसी थियेटर के अंतर्गत रानी दुर्गावती नाटक देखा था और इसपर हिंदुस्तान समाचार पत्र में एक आलेख लिखा था।पिछले कई सालों से श्री द्रोण नाट्य मंडली का नेतृत्व कर रहे मनोज त्यागी ने इस बार भी पारसी थियेटर के अंतर्गत नाटक प्रस्तुत करने का प्रस्ताव रखा जिसे मेला समिति ने नकार दिया। इसके विपरीत इस बार मेले में सूफियाना नाइट, रागिनी, दिल्ली रंगमंच के कलाकारों द्वारा नाटक, बाबा मोहनराम का जागरण जैसे मनोरंजन के साधनों को स्थान दिया गया है। इस मेले में पूर्व वर्षों की भांति दिन में कबड्डी और दंगल भी हुए। सांसद डॉ महेश शर्मा ने भी25 अगस्त को उद्घाटन कर मेले का आगाज किया था, परंतु एक शताब्दी से चले आ रहे और देशभर में यहां शेष पारसी थियेटर की किसी ने सुध नहीं ली,

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