साहित्य जगत

पंचभूतों की विशद व्याख्या पर आधारित डाक्यूमेंट्री बनाने की सार्थक पहल 

कुम्भ मेले की चेतना और उसकी लोक सांस्कृतिक अवधारणा पर शोधकर्ताओं के लिए सामग्री का संचयन कर रहे डॉ अमित सिंह 

प्रयागराज :कुंभ के शाब्दिक अर्थ, “जो भरा हुआ या पूर्ण हो”, को चरितार्थ करती कुम्भ मेले की परम्परा को सही मायने में समझने के लिए लोक, जन, और ग्राम की पगडंडियों पर चलना ज़रूरी जान पड़ता हैं। इसी विश्वास से प्रेरित डॉ. बी. आर. अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली के शिक्षक डॉ. अमित सिंह महाकुंभ २०२५ को उसके लोकसांस्कृतिक पक्ष से समझने के लिए संलग्नरत हैं। डॉ. सिंह भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICSSR) द्वारा प्रायोजित अपने मेजर प्रोजेक्ट, “कुम्भ मेले की चेतना और उसकी लोक सांस्कृतिक अवधारणा”, के लिए पूरे मेले में अपनी टीम के साथ कार्यरत रहे। कुम्भ परम्परा से जुड़े विभिन्न लोक विश्वासों, लोक मान्यताओं, रीतिरिवाज़ों लोकगीतों, किस्से, कहानियों, लोकोक्तियों, मुहावरों, खानपान, रहन सहन, इत्यादि का संचयन और गहन अध्ययन किया गया। इसी सिलसिले में प्रयागवाल, निशाद, तीर्थयात्रियों, कल्पवासियों, संतों, साधु संन्यासियों, आदि के साक्षात्कारों के जरिए इस शोध के लिए प्राइमरी डेटा को एकत्रित किया गया। साथ ही डॉ. सिंह ने लोकसंस्कृति के संदर्भ में फील्डवर्क के सिद्धांतों एवं विभिन्न आयामों पर कैनेडियन मानवशास्त्री प्रोफेसर ब्रेंडा बेक के साथ मेले में गहन अध्ययन और चर्चा की, जिसे भविष्य में शोधार्थियों को उपलब्ध करने की योजना है।

इसे एक प्रकार का संगम ही कहा जाएगा कि अपने शोधकार्य के दौरान डॉ. सिंह ने अपने कुछ बेहतरीन फिल्ममेकर मित्रों को कुम्भ मेले पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म शूट करने में सहयोग दिया। इस फिल्म के डायरेक्टर प्रोड्यूसर, डॉ. ध्रुव हर्ष, एक चर्चित फिल्ममेकर, लेखक और शोधार्थी हैं. पंचमहाभूतों पर शूट की गई इस डॉक्यूमेंट्री फिल्म के डायरेक्टर ऑफ फोटोग्राफी अंकुर राय अपने आप में बेजोड़ हैं। इस फिल्म की म्यूजिक कम्पोज़र और साउंड रिकॉर्डिस्ट मृणालिनी तिवारी एक बेहतरीन गायिका, म्यूजिक कम्पोज़र, फिल्म डायरेक्टर, राइटर और लोकसंस्कृति की मर्मज्ञ हैं। इस फिल्म की स्क्रिप्ट डॉ. सिंह के शोध पर आधारित है।

डॉ. सिंह मानते हैं कि महाकुंभ २०२५ को एक लोक-पर्व की दृष्टि से देखना बेमानी न होगा। विभिन्न मान्यताओं, परंपराओं, रीति रिवाजों के अलावा लोकसंस्कृति के अनेक पहलू कुम्भ परम्परा के अभिन्न अंग हैं। संस्कृति मंत्रालय और उत्तर प्रदेश सरकार के सौजन्य से भारत की लोकसांस्कृतिक विरासत का मेले में विस्तृत प्रदर्शन हुआ, जिसका डॉ. सिंह ने प्रतिबद्ध होकर अवलोकन किया। साथ ही साथ महाकुंभ मेले में भागवत कथाओं, रामलीला, रासलीला, प्रवचन, गीत संगीत की निरंतर प्रस्तुतियों के ज़रिए मेले के इस पक्ष को समझने की कोशिश की गई। साथ ही प्रयागराज के आसपास के क्षेत्रों के लोककलाकारों से संपर्क कर उनकी मेले में सहभागिता को जाना गया। इस पूरी प्रक्रिया में यह महसूस किया गया कि कुम्भ मेला 2025 भारत का लोकसांस्कृतिक संगम भी है। यही बात माघ मेले के बारे में भी कही जा सकती है।

डॉ. सिंह का मानना है कि कुम्भ और माघ मेलों को हिंदुस्तान की लोकसंस्कृति के गहन अध्ययन के प्रभावशाली मंच के तौर पर भी प्रचारित करने की नितांत आवश्यकता है। वे अपने साथियों के साथ मिलकर इसे पूर्ण करने का सपना और संकल्प एक शिक्षक, फ़ॉल्कलोरिस्ट, और रिसर्चर के तौर पर संजोए हुए हैं। हालांकि डॉ. सिंह का वर्तमान शोधकार्य दो साल की अवधि अर्थात २०२४ से २०२६ तक का है, तथापि यह डॉ. सिंह के लगभग दो दशकों के शोधकार्य का एक पक्ष है। पिछले दशक में डॉ. सिंह ने कुम्भ और माघ मेलों से संबंधित अपनी शोध प्रस्तुतियां देश विदेश में लगातार दी हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं कि कुम्भ मेले के संदर्भ में सबसे प्रचलित कथा “समुद्र मंथन” की कथा है। इस कथा को कई नजरियों से समझने का मौका मेले के दौरान मिला। यह कथा परत–दर–परत हमारे अस्तित्व और संसार में हमारी जटिलताओं को समेटे हुए है। ये जटिलताएं कुम्भ मेले में आने वाले श्रद्धालुओं के जीवन का द्वंद भी हैं। इन जटिलताओं के बेहद संतोषजनक उत्तर मेले के दौरान साधु संतों, कल्पवासियों, तीर्थयात्रियों, आदि से मिले। निःसंदेह रूप से यह जानकारी बहुमूल्य है, जिसके अध्ययन से भारतीय लोक परंपराओं को समझने और प्रचारित करने में काफी सहयोग मिलेगा। अतः यह बेहद जरूरी प्रतीत होता है कि कुम्भ और माघ मेलों के ज़रिए भारतीय लोक, जन और ग्राम की परंपराओं को जाना, समझा और प्रचारित किया जाए। इसके लिए शिक्षकों, शोधार्थियों, लोक कलाकारों, जनमानस, और अपने अपने क्षेत्र के सजग अनुयायियों को एक साथ आना होगा। ऐसे संगम की सबसे सहज संभावना कुम्भ और माघ मेले में दिखाई पड़ती है, और इसी संभावना को प्रतिष्ठित करने की पुरजोर कोशिश है “कुंभ मेले की चेतना और उसकी लोक सांस्कृतिक अवधारणा”।

प्रस्तुति -डॉ भगवान प्रसाद उपाध्याय प्रयागराज

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