एक भैंस का फैसला
राजेश बैरागी(स्वतंत्र पत्रकार व लेखक)
मुझे लगता है कि ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ जैसी सदियों से चली आ रही कहावत के दिन लद गए हैं।वह किसकी है, यह भैंस अब खुद तय करने लगी है। हिंदुस्तान टाइम्स के हवाले से द लल्लन टॉप द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट में बताया गया है कि उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जनपद के एक गांव से मौज मस्ती के लिए निकली एक भैंस दूसरे गांव जा पहुंची। वहां उसे एक सज्जन व्यक्ति ने अपना समझकर अपने घर बांध लिया। भैंस का असल मालिक उसे कई दिनों में ढूंढता हुआ वहां तक जा पहुंचा। उसने उस सज्जन व्यक्ति से भैंस लौटाने को कहा तो उसने इंकार में सिर हिला दिया। भैंस मालिक ने नजदीकी पुलिस थाना महेशगंज की शरण ली।इसी 4 जुलाई को थानाध्यक्ष श्रवण कुमार सिंह ने भैंस सहित उस सज्जन व्यक्ति को थाने पर तलब कर लिया। दोनों पक्षों के कुछ खास लोग भी थाने पर जुट गए। पंचायत लगी। दोनों के अपने अपने दावों से कोई किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाया। आखिरकार थानाध्यक्ष को एक तरकीब सूझी और उन्होंने भैंस को फैसला करने के लिए अधिकृत कर दिया। दोनों लोगों को ऐसे रास्ते पर अपने अपने गांव की ओर खड़ा कर दिया जो दोनों गांवों को जोड़ता है। बीच में भैंस को खुला छोड़ दिया गया। भैंस चुपचाप आज्ञाकारी बच्चे की भांति अपने असल मालिक के पीछे पीछे उसके गांव चली गई। और इस प्रकार पुलिस और समाज के समक्ष उत्पन्न हुई एक गंभीर समस्या का समाधान खुद भैंस द्वारा कर दिया गया।क्या यह सच्ची घटना हमें कोई शिक्षा देती है? इस घटना के बाद भैंस के संबंध में कई भ्रम ध्वस्त हो गए हैं। मसलन भैंस कोरी भैंस ही नहीं होती बल्कि एक वफादार जानवर भी है। अक्ल बड़ी होती है परंतु भैंस भी छोटी नहीं होती और उसमें भी अक्ल होती है।तीसरी और महत्वपूर्ण बात यह है कि भैंस के आगे बीन बजाने का आगे भी कोई फायदा होने की संभावना नहीं है क्योंकि इस घटना के बाद भी उसे बीन सुनने और उसपर नाचने के प्रति कोई रुचि उत्पन्न नहीं हुई है,